सूरज की पहली किरण आज
मुझे छूते हुये मग़रिब चली गयी,
एक बीती शाम के दरमियाँ
इस अंतर्द्वंद का सवेरा हो गया....
पुलकित से मन कुछ उतावले ,
कुछ व्याकुल से बैठे थे बाहर
मुक़र्रर करने को एक जगह जहाँ,
सुकून से रोटियां बैठकर खायी जाये....
मौके पर मिला था सरसों का तेल,
और चपटने के लिए एक ढेली नमक
पुरानी यादों का तिनका तोड़कर सोचा,
क्यों न बचपन थोडा फिर जिया जाये...
जाने कितने ही छोटे-छोटे से द्वीप,
मन के अन्दर मरघट बने बैठे थे
कही से कोई आता और यूँ ही
लगातार कई दरवाजे खुले छोड़ जाता ...
मगलूब हो गए थे इसी कशमकश में,
जब देखा वापस तो मन का कोई मुहाफ़िज़ ना बचा...
उस पर इन हवाओं के हलके झोंकों ने भी
कल एक अचानक तूफ़ान था ला छोड़ा....
सिमटकर जब बैठे खुद को अपने आप
गर्म करने कि आस में, उसी राह में,
अपना बताकर लोगों ने
वाकये को बिना वज़ह सर्द कर छोड़ा....
आज वक़्त हम पर मेहरबान है
तो "हम" के कई हिस्से हो गए...
"मै" का हिस्सा ग़र सिर्फ मै था तो,
ये हिस्सा था क्यों इतना थोडा.....
इरादे कही रिक्त थे तो कही,
उनकी जगह ना पायी मुकम्मल सी
कोशिश की थी समझ लेने की,
पर समझ न आया थोडा-थोडा....
आदतों में कभी इतना कडवापन
शायद ही टटोला था जीवन में....
बस मुस्कुराते हुये कुछ शब्द निश्छल
यूँ ही निकल जाते थे बेपरवाह से ,
सच है कि तर्ज-ए-ज़िन्दगी पर डगमगा से
गए थे कभी ये बे-रस्ते से कदम,
इन भटके कदमो से ही मंजिलों को पाने का
कोशिश का एक पुल मैंने ही था कभी जोड़ा.....
जो लकीर खिची है आज आसमान तक,
रंग-बिरंगी घर के बाहर देखने पर
कभी काले धुएं का अम्बार सा दिखता था,
धुंधला कर के मेरी इन अंगार आँखों को..
सपनो से लौटकर अब जल्द खुलती है,
मेरी आँखे सिर्फ एक चादर हटाकर ..
नियति है कि बड़ी मुश्किल से हटा है
ये "संभव-असंभव" का कांटे सा मुखौटा ....
कितनी अंकित तस्वीरे थी मन में
जो दिन रात बना करती थी पल-पल
उधड गए है धागे कुछ परिवर्तन के
तिरस्कार रचे हैं कुछ जीवन के...
रात की कोई गाडी स्टेशन पर
फिर रुकी है घर के पीछे....
शायद कोहरा है छट रहा
साफ़ है रस्ता अब थोडा-थोडा !!!!
"एक प्रयास "