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Wednesday, November 22, 2017

(फिर एक सुबह)


(फिर एक सुबह)



फिर एक सुबह लोगों को घरों से निकलते देखा है

रात के धुंधले ख्वाबों को फिर से उमड़ते देखा है ! 

एक हादसा ही तो था छोटा सा उस रास्ते पर 

फिर से एक बेटे को माँ से बिछड़ते देखा है,

कल ही तो इत्मिनान का बादल मंडराया था उसकी छत पर,

आज फिर अचानक उसे फिर धूप से मरते देखा है  !!!!

 

 

तमाशबीन लोग ही थे और अपने भी लोग ही थे,

मरहम सा कोई नहीं, सब ज़ख्म ही कर रहे थे 

जिनसे उम्मीद थी नजदीकियों की 

वो अब भी फासलों में थे 

कुछ माँगा भी नहीं , ना कुछ लिया किसी से 

उसकी जरुरत में सबको सफाई से मुकरते देखा है !!

फिर एक सुबह लोगों को घरों से निकलते देखा है 

रात के धुंधले ख्वाबों को फिर से उमड़ते देखा है ! 

 

 

 

ये जो चेहरे पे सूखी नमी थी उसके,

उसकी बेबसी में कही छुप सी गयी थी

कई घाव और भी थे अन्दर उसके

सबके लिए दौड़ने वाली आज रुक सी गयी थी

दो दिन से लबरेज था घर खुशियों से उसका 

आज ही मातम को सीढ़ियों से उतरते देखा है! 

फिर एक सुबह लोगों को घरों से निकलते देखा है 

रात के धुंधले ख्वाबों को फिर से उमड़ते देखा है ! 

 

घर में अब कोई नयी ज़िंदगी कैसे आएगी,

जो एक थी वो सबकी लेकर चली गयी,

कुछ रात के हंसी ठहाके ही तो होते थे पहले  

अब दिन-रात बस एक चीख़ देकर चली गयी,

बेपर्दा थे उसकी तरह दूसरों के भी रौशनदान,

मौत का भी किस्सा बनाते उसने लोगो को देखा है  

फिर एक सुबह लोगों को घरों से निकलते देखा है 

रात के धुंधले ख्वाबों को फिर से उमड़ते देखा है ! 

 

 

 

बिलखती देह की कोई परछाई भी नहीं,

ये कैसी पीड़ा है अनंत तक,

घर का कोना कोना भरा है वेदना से

ये कैसी दुविधा है अंत तक

बीती है उसकी इक रात अभी रिक्त से भरी...

और भी जाएगी आगे शून्यता से सनी..

पहले भी घर के बाहर अँधेरा रहता था उसके,

पर आज ही बिना आहट किसी को अन्दर जाते देखा है

फिर एक सुबह लोगों को घरों से निकलते देखा है

रात के धुंधले ख्वाबों को फिर से उमड़ते देखा है ! 

Saturday, November 23, 2013

दो दीवारें !!



मुझको एक ही रहने दे… 
न कर दो दीवारें, 
वक़्त चला गर कहीं दूर तो 
तेरा आशियाना ही मिट जायेगा,
कुछ जो था तेरे पास वो भी 
वापस खुद में सिमट जायेगा। 

वो बेचैनी क्यूँ कहता है 
जो माथे पर कोई शिकन न छोडे 
वो आलम क्यूँ रखता है
जो घर का कोई दरवाजा खुला न छोडे 
मैं तेरा कोई करकट नहीं 
जो सुबह कोई जमादार ले जाएगा
वक़्त चला गर कहीं दूर अब तो 
तेरा आशियाना भी मिट जायेगा।

तेरे सपनो को ज़िंदगी की ज़रूरत क्या थी 
तू तब भी खुली आँखों के ख्वाब देखता था 
उठता था यकीन से 
फिर भी तुझे यकीन न होता  
दो आईने सामने रखकर सोचता 
टुकड़ों और कतरों में सही 
आज या कल में तेरा चेहरा बदल जायेगा ,
सर्वजगत सत्य समझ ले 
तू जो आज है कल भी तू "वही" कहलायेगा 
वक़्त चला गर कहीं दूर अब तो 
तेरा आशियाना भी मिट जायेगा।


दो रास्ते थे तेरे पास अनंत तक   
चलता रहा तू दोनों पर अंत तक 
शिकायत करता रहा लहरों की 
हर बार तू मझधार को छूता रहा 
समझ न पायी ज़िंदगी तेरी ख़ुशी 
कि तू कब किसे कैसे खुश कर पायेगा 
वक़्त चला गर कहीं दूर तो 
तेरा आशियाना ही मिट जायेगा।
रुक जा इबादत से आज की रात 
कि इस दीवार का हर पत्थर भी तुझे ठुकराएगा। 

Sunday, July 15, 2012

" जिद "


" जिद "

 

 

किसी रात की तरह फिर से आज

चुपचाप चाँद पर जाने की जिद की...

ना जाने क्यों चाहा की सारे तारे जकड़ लाऊं

आज बस एक आखिरी सांस लूं और ये आसमां लांघ जाऊं !!!

 

[इस पंक्ति से क्षितिज़ के छोर तक जाने की की कल्पना देखिये]

एक गरम हवा हर बारहथेली इस कदर छूती रही

नीचे सिमटा दिखा सब कुछ ..ज़मीं हर पहर हिलती रही

बादल भी कई चेहरों से ढकने लगा मुझे कुछ यूँ देखकर,

आखिर एक नया मुखौटा लग गया एक नयी दुनिया में जाने को...

कोई पहचान ना पाए चेहरों से..हर चेहरा इतना बदल आऊं...

आज बस एक आखिरी सांस लूं और ये आसमा लांघ जाऊं...!!!

 

बारिश कैसे होती है सब पूछते थे मुझसे घर पर ...

आज उन बूंदों को उनके घर से निकलते हुये देखा था मैंने...

रहता था जहाँ, वहां प्यास में हर तलाश भी बेपता थी...

प्यासे घरों की कितनी छतें बारिश में ढहती देखी थी मैंने...

उन घरों का अँधेरा देख लगा कि चलो कुछ घर रोशन कर आऊं..

आज बस एक आखिरी सांस लूं और ये आसमा लांघ जाऊं...!!!

[रिश्तो के मायने कैसे है हर जगह इन चार लाइनों में देखिये]

कितने खुश है लोग...शायद ख़ुशी जानते ही नही...

वो (ज़मीं) दूर होकर भी अम्बर से खुश हुआ करती है....

यहाँ कोई  "मै" नही कहता....कोई  "तुम" नही कहता....

वहां तो हर दूरी भी एक  रिश्ता बना जाती  है...

कुछ पल और दे दो...मै सबको एक रिश्ते में बाँध आऊं...

आज बस एक आखिरी सांस लूं और ये आसमा लांघ जाऊं...!!!

 

[ये अगली पंक्ति कल्पना के अंतिम चरण की है, ज़रा गौर करियेगा]

 

सोयी रात ने  फिर आँख मली एक करवट लेकर

पानी के छीटें डाले हैं अभी अभी किसी ने मुझ पर

ताज़ी ओस वो खुशबू मेरे पास आकर रुक गयी....

तैयार हो रहा था चाय वाला चूल्हा जलने को ..

मैंने सोचा इस नीद से इस तरह मै कैसे अभी जाग जाऊं...

आज बस एक आखिरी सांस लूं और ये आसमा लांघ जाऊं...!!!

Tuesday, June 26, 2012

" बेफिक्र "


बेफिक्र है हवा भी....न दीवारों की रही कोई हसरत, 
बारबा सर टकराकर जान आफत में डाली थी..
एक ख्वाब आखिरी सा बस टूटकर निकला है  ..
शुरू से परतों में रही .. बेवजह उम्र अब तक ये खाली थी !!!

कुछ कांच की तरह थे फर्श में बिखरे साफ़ टुकड़े  ...
पानी में पड़े थे कुछ उम्मीदों के बड़े तेज़ छीटे 
राख ढेर थी पड़ी घर में...कुछ  सुलगी सी थी ...
घर के बाहर ये जागी रात दूर तक झुकी सी थी  ...
नही आया कोई लौटकर इस झरोखे से अन्दर ..
सोचा एक और लाश दरवाजे से आने वाली थी....
शुरू से परतों में रही, बेवजह उम्र अब तक ये खाली थी !!!

बातें थी कहाँ .. अक्सर तो ये ज़मी पर सो जाती थी ...
चलती लहरें बिना दस्तक मौन लौट जाती थी ..
पुराना एक किस्सा कहने का सबब लेकर..
चलता था तो.... रुकने की आदत सी हो जाती थी ..,
फिर हादसा,,,,,अब तो मुमकिन किस्मत बदलने वाली थी...
शुरू से परतों में रही , बेवजह उम्र अब तक ये खाली थी !!!


सुबह थी अर्श पर...चादरें कतारों में अब भी मैली सी थी ...
एक मेरी यादों से टूटकर जा गिरी थी उस पार...
नजर आता था  हिस्सों में हालात का बिखर जाना...
एक पुरानी काली स्याही इस कदर चारों ओर फैली सी थी ..
मर्ज़ था गहरा,  कुछ दिनों में सेहत बदलने वाली थी....
शुरू से परतों में रही , बेवजह उम्र अब तक ये खाली थी..
शुरू से परतों में रही , बेवजह उम्र अब तक ये खाली थी !!!

Monday, June 18, 2012

"मर्जी"



हैं परिंदे ही तो ये लम्हे ...
रहना कहाँ है ऐ ज़ज्बात ...
उड़ जाना अपनी मर्जी से...
रहने  दो अब आसमानों वाली बात !!!


बस एक तेज हवा....बिन डोर वो उड़ गयी..
सवालों में उलझी जिंदगी एक पतंग बन गयी...
बहकना  कहाँ है अब तुझे ऐ रात
बीत जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!



कुतरे कागजों के ढेर से..
उठता धुंआ ना जाने किधर जायेगा..
किसी के घुंघराले बालों से निकलकर
तिनका शायद कही और लिपट जायेगा..
बसना कहाँ है अब तुम्हे ऐ ख़यालात
सीख जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!


घर में पड़े उन  रिश्तों का क्या होगा...
एक पुलिंदा फिर अब टूट जायेगा...
कुछ नमकीन से साँसों में होगे..
कुछ धूमिल आँखों के आगे होगे..
आजमाना कहाँ है अब तुम्हे ऐ वाकयात
भीग जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!

Monday, June 4, 2012

"अनसुना"



थाली बचपन से ही इतनी छोटी है ....कुछ इसमें समाता क्यूँ  नही...


थोड़ा आगे ही तो निकला है मुझसे , वक़्त लौटकर आता क्यूँ नही..

मै चुप रहूँ , कुछ कहूँ, सुनना जैसे.... कहीं अपनी बात क्यूँ नही?

कदमो से घर के अन्दर, फासला अब भी उतना ही है..

दूरियों के पुल पर हमदर्दी का कोई दरवाजा बना दो...

चलता है, बसर है, रुकना जैसे.... कहीं कोई ठौर क्यूँ नही ?

ये तो मिट्टी के खिलौने, ज़रा बारिश आने का इंतज़ार हो..

चल ओ ग़मगीन आसमां..ऊपर ही ऊपर कहीं तो तकरार कर लो ..

तपिश है,लहर है, बहना जैसे....कही कोई हमसाया क्यूँ नही?

रख ताक पर ...रिश्तों का कोई मेल, नही "मोल" ...ऐसा ही है..

बेवज़ह इस किनारे ....उस किनारे ...किनारा  अब तक ऐसा ही है..

जीतना है,हराना है, समझना जैसे...कही कोई आवाज़ क्यूँ नही ?????

Thursday, February 16, 2012

"धुंध"


ख्वाबों का उतरना बाकी था,

कि आँखों में अब भी नमी बनी रही...

जिंदगी कुछ सूखे पत्तों सी....

गिरती साखों से लिपटी रही..!!

चुप रहे कुछ पल तो कुछ और मिल गए..

सिलसिले बने तो बनते रह गए....

वो घड़ी खामोश बैठे, तो सवाल वाजिफ था

हम भी चुप रहे तो वो दंग रह गए...

आस-पास ही कोई तस्वीर दिखाई देती है...

धुंध है सारे लम्हों में, पर तकदीर साथ बैठी है..

कोई अक्सर दरवाजों पर दस्तक दे जाता है ...

फिर क्यूँ घर के शोर में कोई आवाज नही आती है..

सवाल अब ये है जिंदगी तुमसे कि,

तुम्हारे बीत जाने की क्यूँ अब तक, कोई रात नही आती है !!!!