देखा आँगन में बिखरे पत्तों ने भी कुछ ऐसे ही रंग चढ़ाये थे
बरखा के मध्यम शोर ने बचपन में ऐसे ही
ना जाने कितने ही गिरती बूंदों के पल चुराए थे
शब्द कुछ दबी आवाजों के खुलकर निखरते देखे थे
तो कभी कागजों के कितने ही ढेर नाव के आकार में पाए थे
शाम तक नजरे दौडाकार चारों ओर रोशनी को टटोला
तो चंद जो रह गए थे वो उसके ही कुछ हमसाये थे
भूल गए कि कुछ वक़्त पहले ही तो
चाँद को देखकर ये बादल तबियत से छाए थे
कभी खुद को ढूढ़ पाने कि कशिश,
तो कभी सब भूल जाने कि कोशिश,
ये अरमान तो बस यूँ ही मौसम देखकर
आज अचानक ही दिल बहलाने को आये थे..!!!
बहुत खूबसूरत , बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....बधाई
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