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Friday, December 17, 2010

दुविधा


दुविधा

दुविधा है की सिर्फ तुम हो इस पार, उस पार जीवन का कोई साज़ न था
आज शाम से ही ओढ़ ली उसने चादर,  जैसे सर्द रात का उसे कोई अहसास न था,
बिना पैर के भी रोटी के लिए पैसे जुटाए थे, मग़र मंडी में खुली कोई दुकान न थी
मंहगाई की मार ने आधा तो मार ही दिया ,पर ज़िंदा जज़बातों में भी उसके कोई जान न थी I

पक्के घर की आस और साथ जीने की चाह लेकर वो आधी उम्र पार कर रहा था
खुली आँखों से उसे आज सबका चेहरा दूर और बहुत दूर दिख रहा था,
आँख न खुलने की वज़ह वैद्य ने बताई थी, फिर भी उस हादसे के बाद
सात दिन तक आँखे ना खुली, रख दी थी किसी ने गंगाजल की शीशी उसके पास I

कुछ हादसे बाहर के, तो कुछ घर के, दुविधा की पेटी में साँस लेते बैठे थे
सुना कि उसकी औरत को “कुलक्षणी” बोल चर्चा करते कुछ लोग आँगन में बैठे थे,
"आते ही पैर खा गयी" पर इतनी बड़ी बहस, शायद ही कभी देखी थी टूटे दरवाज़ों से
अम्मा जानती थी क्या हुआ था , फिर क्यों भिड़ती इस झड़प में रोज के लोगों से I

बड़े भाई का बेटा मुन्ना अपनी थाली लेकर, अम्मा के पास दो घंटे तक बैठा रहा
और अम्मा का चूल्हा रात के दस बजे तक, गीली लकड़ियों से मंद मंद जलता रहा,
पैरों के अभाव में खटिया पर, उसके शरीर का विस्तार भी अब कुछ कम सा था
वैद्य की खुराक,पत्तियों के लेप और, उसकी माँ का हाथ ही अब एक मरहम सा था I


अपने दो साल के बच्चे को चलता देख, वो हमेशा उठने को मचलता रहा
अपनी गोद में उसे उठाकर चलने का सबब, उसके अंतर्मन में वर्तमान से जूझता रहा,
खुरचन की लकड़ी दांत में दबाकर, उसका भाई उसे जब गाली देता हुआ जाता था
वक़्त फिर से उसे उस दुविधा में छोड़, उसके दिल को छलनी कर जाता था I

रिश्तों के अंतिम सवाल के लिए उसे जवाबों की, एक लम्बी फेहरिस्त बनानी पड़ती थी
तीन साल की विकलांगता को लेकर, घर में ही उसे कितनी शिकस्त खानी पड़ती थी,
उसकी शादी के बाद अम्मा को, शायद ही कभी इतना रोना आया था
पट्टेदारों से सुना था कि उसकी औरत के घर से, ना के बराबर "सोना" आया था I

अम्मा गृहस्ती में सुलगकर पिता की पेंशन से, घर चलाने की ज़द्दोज़हद में लगी है
उसे याद है इसके शादी के बक्से में, माँ की दी हुई "मोहर" आज भी रखी है,
अम्मा उसकी बेबसी में निराधार जब कुछ कहती है, तो रो पड़ता है वो चादर के नीचे
अस्तित्व के सहारे जब उठना नहीं होता, तो बस देखता है वो अपनी बैसाखियों को नीचे I

कुंठित मन से शालीनता का आँचल फैलाकर, अम्मा आज भी व्यस्त रहती है
उसकी अपंगता को लेकर वो आज भी, उसके सोने के बाद रोया करती है,
दिन-रात का अंतर महसूस नहीं कर पाता, तो अम्मा को बुला लेता है
वो जानता नहीं अब जीवन क्या है तो इसके आगे का वो अपनी अम्मा को समर्पित करता है I