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Monday, June 18, 2012

"मर्जी"



हैं परिंदे ही तो ये लम्हे ...
रहना कहाँ है ऐ ज़ज्बात ...
उड़ जाना अपनी मर्जी से...
रहने  दो अब आसमानों वाली बात !!!


बस एक तेज हवा....बिन डोर वो उड़ गयी..
सवालों में उलझी जिंदगी एक पतंग बन गयी...
बहकना  कहाँ है अब तुझे ऐ रात
बीत जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!



कुतरे कागजों के ढेर से..
उठता धुंआ ना जाने किधर जायेगा..
किसी के घुंघराले बालों से निकलकर
तिनका शायद कही और लिपट जायेगा..
बसना कहाँ है अब तुम्हे ऐ ख़यालात
सीख जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!


घर में पड़े उन  रिश्तों का क्या होगा...
एक पुलिंदा फिर अब टूट जायेगा...
कुछ नमकीन से साँसों में होगे..
कुछ धूमिल आँखों के आगे होगे..
आजमाना कहाँ है अब तुम्हे ऐ वाकयात
भीग जाना अपनी मर्जी से...
रहने भी दो अब आसमानों वाली बात !!!

2 comments:

  1. भाई वाह, कह रहे हो की "रहने भी दो अब आसमानों वाली बात", किन्तु फिर भी आसमानों वाली बात कह गए हो तुम.
    http://facebook.com/yayavar

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