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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे?


माँ, तुम सुनो,
पर सुनकर रूठ न जाना,  
और पापा तुम तो गौर से सुनो,  
वो दिन, दिल से भूल मत जाना,  

और भूलना कभी, तो मेरा नाम भूल जाना,  
नाम से ही तो मुझे बेटी बनाया था,  
दस पर्दों के पीछे मुझे ही रखकर तो,  
बेटे का वसीयतनामा करवाया था,  
कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  
कितना और मुरझा जाऊं मैं,  
आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

पर पापा, तुमने ही तो सबके सामने,  
मुझे घर की मर्यादा बुलाया था,  
और उससे थोड़ी देर पहले ही तो सबको,
बेटे का नाम, कुलदीपक बताया था।  
पापा, दुनिया देखनी थी मुझे भी,  
लेकिन घर के अंदर की नहीं,  
एक दहलीज लांघनी थी मुझे भी,  
लेकिन बिस्तर के तकिए की नहीं।  
आसमान की पहली परत उकेरनी थी मुझे,  
पर स्याही से भीगी चादर की नहीं,  
अपने आप में सिमटना था पापा,  
घूंघट की किसी ओट में नहीं।  
कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  
कितना और मुरझा जाऊं मैं,  
आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

चूल्हे से गैस में जब खाना बना,  
तो तुमने कहा, "ये तुम्हारे लिए है",  
और पतंग–मांझे की डोर पकड़ाकर,  
भाई से कहा, "ये तेरे लिए है"।  
कितनी और डोर मेरी उड़ान की,  
ऐसी ही काट दी तुमने, पापा,  
मेरी खुशियों की सहेजी गुल्लक,  
कहीं और ले जाकर बांट दी, पापा।  
कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  
कितना और मुरझा जाऊं मैं,  
आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

कभी मुझे भी बाजार जाते हुए,  
पैसे देते हुए, एक बार कह देते,  
जो जी में आए, ले लेना,  
पैसों की फिक्र मत करना। 
दो थप्पड़ भाई को लगाकर कहते,  
मेरे न होने पर भी,  
कभी भूलकर भी,
अपनी बहन पर हाथ मत उठाना।"  
मुझे मारने से पहले, पापा,  
मुंह से निकली बात भी तो सोच लेते।  
कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  
कितना और मुरझा जाऊं मैं,  
आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

मेरे बस्ते की किताबों को,  
सहेजकर रखने में क्या हर्ज़ था, पापा?  
क्यूं फाड़ लेते थे रोज़ एक पन्ना,  
सिंगड़ी में आग जलाने को?  
भाई को हर तकलीफ से बचाने का,  
ये कैसा मर्ज़ था, पापा?  
और मेरे बस हाथ पीले करने का,  
ये कैसा फ़र्ज़ था, पापा?  
ये कहकर कि,
मेरा जन्म ही निराधार है,  
और मेरा अस्तित्व, 
एक गिरवी नाव की पतवार है।  

अपने मन में मेरे तिरस्कार की,  
कभी तो गांठे खोल देते।  
कंधों पे आंसुओं का बोझ रखने को,  
कभी तो अपनी बाहें खोल देते।  
पापा थोड़ा मुझसे सुन लेते,  
और थोड़ा मुझे भी सुना देते।  

उन्हीं दस लोगों के सामने,  
एक दिन का तो बेटा बना लेते।  
हाँ पापा! सच में क्या ये गलत होता,  
जो मारकर, कई बार मुझे,  
एक बार ना चाहकर भी बुला लेते ,
और फिर जल्दी गले से लगा लेते।

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  
कितना और मुरझा जाऊं मैं,  
आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  
एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!!

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

तेरे हालात का विजय पथ!

 


क्या यही है तेरे हालात का विजय पथ?
घर तो आया है तू,
पर आज भी बेबस, आज भी लथपथ!
माथे पर शिकन की कई दिशाएँ, नयी–नयी,
घर–वापसी में किसी लाश के पीछे था न तू?
उसे पीछे छोड़, कौन सा कर्म युद्ध जीत लिया रे?
आख़िर कयामत का ऐसा कौन सा दरवाजा,
किसी और के कर्मों का, गलती से तूने तोड़ दिया रे?
तेरा आना-जाना हर रोज़ है,
और खुद से जंग तेरी हर दिन नई,
ज़िंदगी न के बराबर है, बिल्कुल श्मशान और बंजर।
शिकन है, तो बता क्यूं पीछे छोड़ आया?
एक देह, मृत कई?

क्या सच में इतना आगे बढ़ गया है तू?
या कोई ‘ख़ुद–ख़ुशी’ तलाशता,
कहीं और मुड़ गया है तू?
घुटन से भरा कैसा है रे ये तेरा पथ?
क्या यही है तेरे हालात का विजय पथ?
लानत है! घर तो आया है तू, पर आज भी बेबस, आज भी लथपथ।
"अ–जय"