मै चुप रहूँ , कुछ कहूँ, सुनना जैसे.... कहीं अपनी बात क्यूँ नही?
कदमो से घर के अन्दर, फासला अब भी उतना ही है..
दूरियों के पुल पर हमदर्दी का कोई दरवाजा बना दो...
चलता है, बसर है, रुकना जैसे.... कहीं कोई ठौर क्यूँ नही ?
ये तो मिट्टी के खिलौने, ज़रा बारिश आने का इंतज़ार हो..
चल ओ ग़मगीन आसमां..ऊपर ही ऊपर कहीं तो तकरार कर लो ..
तपिश है,लहर है, बहना जैसे....कही कोई हमसाया क्यूँ नही?
रख ताक पर ...रिश्तों का कोई मेल, नही "मोल" ...ऐसा ही है..
बेवज़ह इस किनारे ....उस किनारे ...किनारा अब तक ऐसा ही है..
जीतना है,हराना है, समझना जैसे...कही कोई आवाज़ क्यूँ नही ?????

तुम्हारी रचना "मर्ज़ी" ज्यादा 'रीडर फ्रेंडली' है... "अनसुना" के पहले दो छंद बहुत असरदार हैं, और "मर्ज़ी" के मुकाबले बहुत अच्छी शुरुआत देते हैं, लेकिन तीसरे छंद पर पहुँचते ही रीडर अटक जाता है. मेरे ख्याल से तीसरे छंद को और उसके बाद की पंक्तियों को दुबारा लिख के लय में लाने की ज़रूरत है.
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